क़बीर - क्यूँ?

गुस्ताख़ी माफ!

क़बीर एक नाम के तौर पर जाना जाने वाला शब्द है, 
मेरी समझ से यह नाम धर्मनिरपेक्ष है जो लगभग हर समुदाय में रखा जाता है। इसके अतिरिक्त क़बीर शब्द सन्त क़बीर दास जी के कारण बहुत प्रचलित हैं जो हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध संत और कवि थे। इसके अतिरिक्त सम्मानित व्यक्ति को भी क़बीर की संज्ञा दी जाती है व भारत में मनाए जाने वाले एक त्यौहार होली में गाया जाने वाला एक गीत भी  "क़बीर" नाम से जाना जाता है परन्तु विशेषकर यह शब्द केवल संत क़बीर जी के कारण प्रचलित है जिन्होंने 15 वीं सदी में अनेकों दोहे लिखे जिनका हिंदी साहित्य पर बहुत अधिक प्रभाव है।
अन्य अर्थ:
महान: वह व्यक्ति जिसने अपने कार्य के कारण महानता को हासिल किया है क़बीर कहलाता है।
बुजुर्ग: एक आयु के बाद वृद्धावस्था को भी क़बीर शब्द से सम्बोधित किया जाता है।
सम्मानीय: वह व्यक्ति जिसे समाज मे सम्मान मिला है व जो सम्मानीय होता है क़बीर कहलाता है।

पर ये सब लिखने के पीछे वजह क्या है?

दरअसल हमारे कुल के चश्मोंचिराग़ का जन्म हुआ जिनका नाम रखा क़बीर(क नुक्ते के साथ), बच्चा अभी एक दिन का भी नहीं था पर नामकरण एक अरसा पहले हो चुका था, उसके पीछे की कहानी यही थी की हम जब पहली बार कबीरदास जी की जीवनी से मुखातिब हुए तो उनसे बहोत प्रेरणा मिली, उनके चरित्र मे, जैसा की किताबों मे पढ़ा-सुना, उनकी लेखनी में महसूस किया, एक करिश्माई बात थी, उनके जीवन काल के समय जब समाज में धर्मयुद्ध घरों में घुसकर सामाजिक रूढ़िवादी प्रवित्तियों को बढ़ा रहा था उस वक़्त उनकी सोच और दूरदर्शी विचार ही थे जिसने समाज की रूढ़िवादी भावना को नकारकर भक्ति भाव अपनाने की बात की, रूढ़िवाद के विरुद्ध उनके द्वारा फैलाया हुआ ज्ञान आज भी प्रासंगिक है, भले ही उन्होने कभी फॉर्मल एडुकेशन प्राप्त नहीं की, जिसका जिक्र करने मे उन्होने कभी गुरेज भी नहीं किया, फिर भी स्वेच्छा से गुरु ढूंढा और ज्ञान प्राप्त किया | वो सच्चे थे और जो सही था वही कहते और सिखाते थे उनका किसी से बैर नहीं था, न वो धर्मवादी थे, न ढोंग मानते थे, वे कर्मवादी थे, भक्ति उनकी निर्गुण थी, उनके राम भी अलग ही थे। 
उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक और ज्ञानप्रद हैं जो किसी भी व्यक्ति को संसार का ज्ञान प्राप्त करने मे मददगार हैं। उनका नाम ही अपने आप मे 
धर्मनिरपेक्षता का पर्याय है, और कई हद तक संवैधानिक भी लगता है न ये किसी धर्म की थाती है ना जात पात की, उनका नाम थाती है तोह केवल ज्ञान और प्रेम की, बस इसी
प्रेरणा से ये नाम रखने का सोचा गया था की जब कभी भी बालक जन्म लेगा उसका नाम भी क़बीर रखा जाएगा, जो जाति, धर्म और भेदभाव से अच्छुण हो, ज्ञानी हो, हंसमुख हो और बेबाक हो, कबीर दीर्घायु थे, तकरीबन सौ बसंत देखे थे तो बालक भी उनके जैसा दीर्घायु होगा ये सारी बातें सोच कर नामकरण किया। बात यहाँ तक तो ठीक थी पर जब नाम पुकारा गया तो विभिन्न प्रकार के या यूं कहें की विचित्र प्रकार की प्रतिक्रियाएँ मिलीं| वरन नाम अधार्मिक सा लग रहा है, बड़ा पुराना नाम है और कुछ तो समकालीन सिनेमा कबीर सिंह ने इसे और मुश्किल बना दिया, की कहीं बच्चा कबीर सिंह सिनेमा के मुख्य किरदार जैसा न निकाल जाए आदि, इस तरह की निंदा सुनकर कबीरदास की बात ही याद आयी -

"निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।"

अर्थ: जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के बिना ही हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है। 
निंदकों की बात का जवाब तोह ख़ुद क़बीर ने दे दिया था,
फिर बात आई नाम की वर्तनी पर की नाम क़बीर (Qabir) क्यूँ है कबीर (Kabir) क्यूँ नहीं। कुछ मित्रों ने ज़िक्र किया की Kabir ही रहने देना नहीं तो हर जगह पर गलती होती रहेगी, एक बार को लगा की कहीं ऑफिस-ऑफिस के मुसद्दी लाल जैसी स्थिति न हो जाए,  सोच कर एक बार को भय जरूर आया की कहीं केवल नाम सही कराने मे ज़िंदगी न निकाल जाए| फिर एक लेख पढ़ कर विचार आया कि किस कदर हम अपनी ही भाषाओं का गला घोंट रहे हैं, अपने ही शब्द जो संस्कृत, फ़ारसी, उर्दू आदि भाषाओं से लिये गए हैं उनका तदभव अंग्रेजीकरण की बलि चढ़ गया है, जिस तरह गौरैया प्रजाति की चिड़िया का धीरे धीरे लोप हो गया क्योंकि वो सुंदर नही थी उसे पिंजरे में पाला नहीं जाता, वो आसानी से उपलब्ध थी, भले ही उसका इकोलॉजी में एक अहम हिस्सा था पर वो अनभिज्ञता की बलि चढ़ गई ठीक उसी प्रकार वर्तनी में भी शुद्धता का लोप हो गया, अंग्रेजीकरण खेत मे जंगली घास जैसे उगती गयी, हालांकि मैं स्वयं इस पूरे लेख में कई दफे अशुद्ध रहा हूँ जिन्हें ढूंढना पाठको के लिए एक अभ्यास का काम करेगा।
केवल लिखने में सुविधा हो इसके चलते अपनी भाषा और वर्तनी का तिरस्कार? ये सारी बातें सोचने के बाद ये एहसास हुआ की बात केवल सुविधा की नहीं है बात है सही और गलत की, जिस तरह क़बीर को रूढ़िवाद पसंद नहीं था ठीक उसी तरह अशुद्धियों के साथ जीने की प्रवृत्ति जो सरलता के नाम पर परोसी जाती रही है क्या ये भी एक तरह का रूढ़िवाद नहीं है, क्या हमें भी इस रूढ़िवाद का विरोध नहीं करना चाहिए, किसी प्रमाणपत्र या पहचान पत्र पर नाम गलत लिख दिया जाएगा क्योंकि वर्तनी की अशुद्धि प्रचलन में है इस बात के भय से क्या विचार बदल देना ठीक है? क्या हम गलत को बर्दाश्त कर अपराध नहीं कर रहे होंगे? बहरहाल तत्सम और तदभव शब्दों पर एक लेख जिसका ज़िक्र पहले कर चुका हूं उसे देख कर दयनीय सा महसूस हुआ की भाषा अपना रूप खो रही है, देवनागरी लिपि में तमाम तरह की अशुद्धियां आ चुकी हैं, अंगरेजी की तर्ज़ पर हिन्दी फारसी और उर्दू को भी लिखा जाने लगा है, नुक्ता जो एक बिंदी सी मूलतः पांच अक्षरों (क़, ख़, ग, ज़ और फ़ ) के नीचे लगाई जाती है का लोप हो रहा है। अब सवाल है की आखिर फर्क कितना आ जाता है नुक्ते के साथ?  इसके लिए एक ही उदाहरण सही समझ आता है, खुदा (Dig) और ख़ुदा(god) का| जैसा की एक पुराने जुमले मे कहा जाता है, 

1- यहाँ भी खुदा है वहाँ भी खुदा है,जहां देखो वहाँ खुदा ही खुदा है। 

और 

2-यहाँ भी ख़ुदा है वहाँ भी ख़ुदा है, जहां देखो वहाँ ख़ुदा ही ख़ुदा है। 

बिना नुक्ते के ये जुमला सड़कों का हाल बयान कर रहा है वहीं दूसरे जुमले में ईश्वर की हर जगह मौजूदगी की बात कर रहा है। बस इतना सा ही फर्क है कि एक अदना सा नुक़्ता एक गड्ढे को भगवान बना देता है।

बहरहाल मैं वैचारिक उहापोह में था कि तभी एक
मध्यममार्गीय विचार सुझाया गया की घर का नाम ठीक है स्कूल मे कुछ और रख सकते हैं। 
अब इस बात ने बड़ा असर किया 
कि क़बीर इकलौते थोड़े थे जिन्होने अच्छा किया, Shakespeare (जिनका सही नाम लिखने मे स्पैल चेक की मदद ली गयी, अन्यथा लिखने की सरलता के लिहाज से सेक्स-पियर या पीला संभोग जैसा कुछ लिख दिया जाता) भी तो अच्छे थे, जिन्होने लिखा था ।
What’s in a name? That which we call a rose
By any other name would smell as sweet;
(अर्थ जानबूझ कर कटाक्षवस नहीं लिखा, आता तोह होगा ही सबको) सो नाम के पीछे इतनी जुगत लगाना नागवार लगने लगा और साथ ही कबीर के नाम ने एक सीख भी दी की कबीर से आप इन्सपाइर हुए, बच्चे के ऊपर अपनी इन्सपिरेशन जिन न थोपिए जी, बेशक नाम सुनने मे बड़ा अच्छा लगता है पर वो केवल आपको। और भाषा विज्ञान पर मेरे कोई परम विदुषी न होने के कारण नामकरण का निर्णय सामाजिक नीति नियमों के अनुसार होना चाहिए वही नीति नियम जिसका सबका अपना अपना वर्जन है, होना भी चाइए, (चाइये जानबूझ कर बेपरवाह हो लिख दिया, क्या फर्क पड़ता है, समझ आना चाहिए बस )।
बात सुविधा की है, अपनी सोच हम खुद क्यों इतनी विकसित करें की अपने बच्चे का नाम किसी विचारधारा को दिमाग मे रख कर नामकरण करें, कोई ज्ञानी पुरुष जो आपके बच्चे का भला बुरा आपसे बेहतर समझते हैं वही सुझाएंगे नाम जो उचित होगा या ऐसा कुछ जो सामाजिक बहाव में बहने में सुविधाजनक हो, जिसके लिये किसी दफ्तर के चक्कर न लगाने पड़े, हर कहीं वर्तनी सुधरवाने के लिए हाइकोर्ट जाने की धमकी न देनी पड़े और कहीं पर अल्बर्ट के चाचा जिन्होंने साफ्टवेयर में शुद्ध वर्तनी को लिखने का जुगाड़ अभी तक नहीं ढूंढा है उनके साफ्टवेयर के आगे सरेंडर न करना पड़े, हर कहीं जाति, धर्म न पूछा जाए, जो हो वो स्पष्ट हो क्योंकि सुविधा रहती है सर्वाइवल आसान हो जाता है। 

इस बात से ध्यान आता है कि आज रामधारी सिंह दिनकर जी जिंदा होते तोह मेरी स्थिति देखकर बेशक़ सोच रहे होते की 'रश्मिरथी' क्या सटीक नाम था उनकी रचना के लिए क्योंकि सुविधा के लिहाज से तोह ठीक नहीं समझ आता। खैर उन्होंने स्वयं कर्म को प्रधान मानकर कर्ण का चरित्र अपनी रचना में चरितार्थ किया था। कर्ण के माध्यम से उन्होंने समाज की कुरीतियों पर एक तगड़ा कटाक्ष कुछ इस तरह किया है,

पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से'
रवि-समान दीपित ललाट से और कवच-कुण्डल से,
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प़काश,
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।

इसी सर्ग में आगे लिखा है, 

कर्ण भले ही सूतपुत्र हो, अथवा श्वपच, चमार,
मलिन, मगर, इसके आगे हैं सारे राजकुमार।

हमने भी बड़ी कोशिश की, लड़ाइयां लड़ने की ठानी, पर क्या करें, सुविधा नहीं होगी। करना क्या है, बह चलेंगे किसी वाद के बहाव में जिनकी न समझ है ना समझाने वाले, हां! सुविधा है बस। अंत तक आते आते मेरे विचारों का हाल भी वही हुआ जैसा कर्ण के साथ रणभूमि में हुआ था, वीरगति को प्राप्त हुए और वैसा भी जैसा वशीर बद्र के शेरों के होता है।

हज़ारों शेर मेरे काग़ज़ों में सो गए,
अज़ीब माँ हूँ कोई बच्चा मेरा ज़िंदा नहीं रहता।

(संभवत: कहीं न कहीं इस लेख में पर्सनल हुआ हूँ पर किसी की संवेदना से खेलने का इरादा ज़रा भी नहीं है, कहीं किसी की भी भावना को ज़रा भी दंश झेलना हुआ हो तोह छमा प्रार्थी हूँ)
और हां! भारत एक आज़ाद देश है बशर्ते प्रधान अदालत से आप संविधान की दुहाई देकर इसे साबित नहीं कर देते।
यहां आज़ादी के मायने भी अलग हैं, भौतिक आज़ादी खूब है बस मानसिकता कहीं न कहीं आज भी आज़ादी के सही मायने नहीं तय कर पाई है। 

किसी सुविधाजनक नाम की तलाश में,
एक अदना सा बाप।



 

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