Chandrasheela


सैरकर दुनिया की गाफ़िल, जिन्दगानी फिर कहाँ
जिन्दगानी गर रही तोह, नौजवानी फिर कहाँ।

- ख़्वाजा मीर दर्द

घुमक्कड़ी मानव जीवन का सदा से अभिन्न अंग रहा है, आज भी तमाम घुमक्कड़ हैं जिन्हें दुनिया जमाने से कोई सरोकार नहीं, किसी बात की चिंता नहीं और अगर है भी तो केवल इस बात की कि आगे कहाँ जाया जाएगा। वही उनकी भक्ति है वही उसका भगवान है, यही उसके भगवान कि पुजा अर्चना इबादत सबकुछ यही है।
दुनिया में तमाम महान घुमक्कड़ हुए, बल्कि सभी महान इन्सानों के अंदर एक घुमक्कड़ी कि जिज्ञासा होती ही है, मैं गलत हो सकता हूँ, पर अब तक का मेरा अनुभव यही कहता है कि जो जितना घूमा है उसने उतना ज्ञान प्राप्त किया है और उससे कहीं ज्यादा अपना ज्ञान बांटा है। हम यहाँ उनमे से किसी का ज़िक्र नहीं कर रहे हैं, यहाँ ज़िक्र है तो कुछ दोस्तों का जो घूमने निकले। विमल,आशीष, बंडुल, बरनवाल, रस्तोगी, भास्कर और मैं।
भले ही आज के यातायात के साधनों कि सुगमता ने घुमक्कड़ी को सहज बना दिया है  fir bhi  ये kaam इतना आसान है नहीं, सभी घूमना चाहते हैं पर अगर स्तटिस्टिकल (statistical) अध्ययन किया जाए तोह 'घूमने का सोचने' और 'वास्तविकता में घूमने' का Conversion ratio नाम मात्र का ही होता है।हमारे लिए भी आसान नहीं था, कैसे किया और क्या उसी का ज़िक्र भर है, पहले पहल सोचा था कि एक समुचित यात्रा वृत्त लिखुंगा पर कुछ महान घूमककड़ियों कि रचनाओं से जब मुखातिब हुआ तब लगा कि अभी बहोत सीखना बाकी है। फिलहाल बेबी स्टेप्स से शुरू करता हूँ।  

दिसम्बर का  महीना घुमक्ककड़ी का स्वर्णिम काल होता है और हर बार की तरह इस बार भी गोआ जाने का विचार मुकम्मल हुआ ही था कि उसमे दस व्यवधान - वही पुराना किस्सा- कानी के बियाह में सौ जोखिम।
वैसे भी जाने क्यूं गोआ, प्लान कैंसिल और दिसम्बर का क्या संयोग है, न नौ मन तेल होता है न राधा gauune jaati  हैं। गोआ तो नहीं गए पर उसके बाद एक और परम घुमक्कड़, फॉटोग्राफर और इंजीन्यरिंग में बड़े बड़े परचम लहराने वाले मेरे परम प्रिय राकेश भईया ने एक जगह का सुझाव दिया।
समुद्र तल से 4000 मीटर (13500 ft) की ऊंचाई पर स्थित एक मनोरम पर्यटन स्थल। गढ़वाल की हिमालय पर्वतमाला में स्थित इस जगह से पास की झीलों के अद्भुत दृश्य, घास के मैदान, नंदा देवी, त्रिशूल, केदार, बंदरपूंछ और चौखम्बा की चोटियों के अद्भुत दृश्य प्रस्तुत होते हैं । ये ट्रेक दर्शकों के बीच सबसे लोकप्रिय ट्रैकिंग मार्गों में से एक है। यह मार्ग चोपता से शुरू होकर तुंगनाथ तक 5 किमी की दूरी तय करता है।निरंतर खड़ी चढ़ाई ट्रैकिंग को कठोर और मुश्किल बनाती है। चूँकि सर्दियों में यह मार्ग बंद रहता है अतः ट्रैकर्स अन्य मार्ग देवरिया ताल – दुग्गलबिट्टा – तुंगनाथ होते हुए यहाँ तक पहुँच सकते हैं।
इस जगह से hum doston ko सभी को पहली दफा ही मुखातिब होना था और जब वहां पहुचने की बात मुकम्मल हो गयी तब बात आयी की घरवालों को किस तरह समझाया जाएगा । यहाँ एक अखिल भारतीय समस्या पर नजर डालना चाहूँगा की कहीं भी जाने के लिए आज़ादी भले मिल जाये पर जैसे ही घूमने जाने की बात आती है वहीं घरवालों के कान खड़े हो जाते हैं, तमाम दलीलें दी जाने लगती हैं कि क्यों न जाया जाए। चंद्रशिला तक जाना यूँ ही मुश्किल लग रहा था और यदि वहां के गिरते तापमान के बारे में बताया जाता तोह शायद ही कोई तापमान के माइनस दस (-10℃) तक गिर जाने वाली जगह पर जाने की इजाजत देता । खैर, व्यक्तिगतरूप से ये समस्या मेरी कभी नही रही, आज तक जितनी भी यात्राएं की हैं सभी में परिवार का सहयोग हमेशा से अहम रहा है, और उससे भी ज्यादा दफ्तर में साथियों और वरिष्ठ अधिकारियों का जिनका मैं सदा ही आभारी हूँ।
बहरहाल, सभी ने येन केन प्रकारेण इजाजत हथिया ली। संभवतः आधे सच बताकर
जूते, बरसाती, टॉर्च, खाद्यान्न और देशाटन के प्रकाण्ड बनारसी विद्वानों के कहे मुताबिक गमछा, ताला और लँगोट  सब जुटा ली गयी।
झोला-झंडा जुटा कर एक जगह रख लेने के बाद श्रीमति जी का भावुक चेहरा देख मन भर आया था, पर उस वक़्त सुंदरकांड का एक ही प्रसंग ध्यान आया,
सभय सुभाउ नारि कर साचा।
मंगल महुँ भय मन अति काचा॥1॥
(स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत भय से भरा होता है। मंगल में भी भय करती हैं। स्त्रियों का मन (हृदय) बहुत ही कच्चा होता है।) अक्सरहाँ ऐसे वाक़ये होते हैं जब संवेदना और भावनाओं के महासमर के बीच मनुष्य असहज हो जाता है, ये लम्हा भी मेरे लिए कुछ वैसा ही था। मोहतरमा को बैठा कर किसी तरह केदारपीठ तुंगनाथ महादेव के बारे में बताया, कुछ संवेदनापूर्ण शब्द कहे तब कहीं जा कर माहौल कुछ हल्का हुआ और जाना निश्चित हुआ।
इस ट्रिप पर साथ कई मित्रों का मिलना था पर यात्रा के दिन तक केवल ऊपर उल्लिखित छः मित्रों विमल,आशीष, बंडुल, बरनवाल, रस्तोगी, भास्कर का ही साथ मिला। पहले पहल हरिद्वार से यात्रा का आरंभ होने था, वहां तक पहुचने के लिए बनारस से कुम्भ एक्सप्रेस गाड़ी पकड़नी थी जो रात को एक सवा एक बजे मिलनी थी पर ठंड में अधिकतर गाड़ियां देर से आती हैं, इस बार भी रेलगाड़ी ने हमें निराश नही किया, 3 घंटे लेट आयी पर उसका फायदा ये हुआ कि रात की नींद खराब नही हुई।आराम से सुबह पांच बजे गाड़ी पकड़ी।

पहला दिन मज़ेदार रहा क्योंकि पूरा दिन रेलवे कंपार्टमेंट में बीतना था वो भी मित्रों की संगत में। जहाँ कई दफे चाय के दौर चले, सहयात्रियों के बारे में चर्चा परिचर्चा होती रही, बीते साल की कहानियों का भी जिक्र हुआ, वो कहानियां जो भौतिकतावाद की बलि चढ़ गयीं थीं, जो हम दोस्तों की अलग अलग ज़िंदगी में गढ़ी तोह जा रही थीं पर एक दूसरे से उनका जिक्र शायद ही हो सका था, आज वो वक़्त था जब सभी ‘वाला और वालियों’ का जिक्र हो रहा था वरन किसी की झुमकेवाली, किसी की दालमंडी वाली, किसी की इंस्टाग्रामवाली और किसी की प्यारी इस्माइल वाली। हमसे केवल हमारीवाली का ही जिक्र हुआ।
रास्ता करीब अट्ठारह घंटे तक खींच रहा था, बातों के दौर अलग मोड़ लेने लगे, मौसम सर्द होता जा रहा था इसी बीच भास्कर गुरु कम्बल उठाये विमल को भी सिर से घुटने तक ओढ़ा दिए और हँसने लगे, वजह पूछने पर कहे , ‘बोला मत गुरु, कोहबर क पतरी उतरत हौ।‘ इतना सुन कर हम सब फिस्सस कर के हस दिए। उस वक़्त कोई वजह न भी थी फिर भी माहौल मस्ती का था क्यूंकी सब साथ थे, हर बात ही अच्छी लग रही थी वो भी जिसका कोई मतलब न था।

 रात दस बजे हरिद्वार स्टेशन पहुचे हरिद्वार स्टेशन से उतरकर हम सीधे हर की पैड़ी की ओर चल दिये, मन में विचार था की वहीं स्नानादि करने के बाद ही आगे की यात्रा की जाएगी।, ठंड बहोत ज्यादा थी तो चाय पीने के बाद ही रहने सोने की व्यवस्था ढूंढने की बात तय हुई।चाय की तलब बड़ी विचित्र चुनौती होती है, बिना पिये मन मानता ही नहीं। एक आवश्यक बात यह बताना चाहूंगा कि जिस प्रकार बच्चन जी ने मधुशाला में कहा है,
 “मंदिर मस्जिद बैर कराती, और मिलाती मधुशाला”
ठीक उसी प्रकार ये बात चाय के साथ भी लागू होती है, एक सच्चा चहेड़ी कभी चाय के साथी का अनादर नही करता, ये एक अलग प्रजाति होती है, जो चौराहों को गुलजार करती है, एक चहेड़ी कि चाय की तलब घरों, दिलों और लोगों को जोड़ती है,  हमें जोड़ा विक्की भाई से, चाय की दुकान पे मिल गए, गरमा गरम चाय बनाई, लकड़ी जल रखी थी उसी के बगल में कुर्सी लगा दी, चाय पिलाई और दुकान के सामने ही आस्था होटल में बढियां रहने की व्यवस्था भी करा दी। घर का दिया हुआ खाना खा कर ही हम लोग सो गए, प्रातः काल मे ही हर की पौड़ी जाने का विचार था पर 19 घंटे ट्रैन में सफर करने के बाद शरीर को आराम की जरूरत थी शायद इसी वजह से सुबह समय से उठ न सके। देशाटन की एक बड़ी खूबसूरत सीख ये मिली की अपनी छमताओं को जानलेना कितना जरुरी होता है |

अगले दिन हम सभी जगे और उखीमठ जाने का विचार किये उसके बाद एक अनचाही खबर मिली की आशीष रस्तोगी गुरु की माता जी की तबियत बिगड़ गयी है उन्हें अस्पताल ले जाना होगा, आशीष गुरु को व्यथा ने घेर लिया की करें क्या? इतनी दूर आकर के वापस लौट जाना ठीक भी नहीं लगता और वहां माँ बीमार है उसकी देख रेख न हो पाए ये भी ठीक नहीं है | चाय नाश्ता कर के ही हम लोगों ने निश्चय किया की आशीष गुरु को घर जाना चाहिए तोह सबसे पहले उन्हें वापसी की गाड़ी पकड़ाई गयी उसके बाद उखीमठ की बस पकड़ी| जीवन में अनिश्चितता एक सतत प्रक्रिया है कब क्या होगा किसी को इसका पता नहीं होता |
भारी मन से आशीष गुरु को विदा किया गया पर इस बात की खुशी थी की वक़्त पर गुरु पहुच गए और सकुशल इलाज कराये । उखी मठ की बस को छूटने मे काफी वक़्त था तो इधर उधर की मटरगस्ति होती रही| बस मे ही पास में बैठे त्रिवेदी जी से बातचीत होने लगी, बातचीत मे मालूम चला की बंधु भी उखीमठ के रहने वाले हैं, बातों बातों मे ही मित्रवत व्यवहार बन गया और सभी मित्रों से अच्छा घुलना मिलना भी हो गया, त्रिवेदी जी रास्ते मे तो जानकारी आदि देते ही रहे अपितु उखीमठ मे सारा प्रबंध वरन भोजन की व्यवस्था, ठहेरने रुकने का प्रबंध आदि खुद जा के करा भी दिया| त्रिवेदी जी के रूप मे एक अनन्य मित्र मिला इसकी हम सभी को बहोत प्रसन्नता है | 
उखीमठ जाने का रास्ते का अनुभव मिला जुला रहा, शुरुआत मे पहाड़ों के बीच से गुजरती बस मे प्रकृति की सुंदरता को मन मंदिर मे भर लेने का मन कर रहा था बाद मे घुमावदार पहाड़ों मे बस के हिचकोले उतनी उबकाई भरे थे बहादुर, भास्कर की तबीयत नासाज़ हो गयी, बाकी भी कुछ बहुत अच्छी स्थिति मे नहीं थे सफर लंबा होता जा रहा था और रास्ते कठिन, शरीर की छमता जवाब देने लगी थी पर एक दूसरे का साथ ही हम सभी को हिम्मत दे रहा था, रात को करीब 09:00 बजे हम उखी मठ पहुचे रात ज्यादा हो जाने के कारण ठहेरने का प्रबंध मुश्किल ही होता पर त्रिवेदी जी की सहायता से आसानी से प्रबंध हो गया, बाजार मे ले जाकर भोजन का प्रबंध भी बंधु ने ही किया | एक सच्चे मित्र की भांति बंधु लगातार हम लोगों की मदद करते रहे जिसने हम सभी को कृतज्ञ बना दिया|


भोजन आदि के बाद हम सभी एक ही कमरे मे सोने गए बिस्तर कम थे पर विमल भाई ने किसी प्रकार व्यवस्था कर दी और खुद जमीन पे जुगाड़ कर सो गए। आधी रात तक मस्ती चलती रही पर नींद के माते हम जागते भी कितना जाने कब निद्रा ने आलिंगन कर लिया | सुबह हुई नाश्ता किया तैयार हुए और देवरिया ताल जाने के लिए तैयार हुए, एक गाड़ी बंधु ने ही कर दी जिसने हमें सारी गाँव तक पहुचा दिया|




देवरिया ताल





सारी पहुच कर हम सब थोड़ा रिलैक्स हुए वहीं बहादुर किचेन मे घुस गया और बढ़िया मैगी अपने हाथ से बना कर ले आया बड़े समय के बाद हम कुछ अच्छा खा रहे थे, साथ मे अच्छा खाना बनाने वाला मित्र होना भी अपने आप मे एक उपलब्धि है| सारी गाँव से देवरिया ताल का ट्रेक मनोहारी था, ट्रेक पर चढ़ना काफी आसान था और आसपास की पहाड़ियां देख कर मन आनंदित होता जा रहा था, हम सभी का पहाड़ों पर चढ़ने के अनुभव भी बीच बीच मे साझा होता रहा, कभी विमल अपनी बात करता, कभी भास्कर अपनी। कई दफे ऐसा महसूस हुआ कि ये सारी बातें शायद ही कहीं निकलती अगर हम लोग आज साथ न होते।

कुछ वाकये बताये गए जिनका जिक्र कभी कहीं किसी के सामने नही हुआ था, कुछ बातें ऐसी भी थीं जिन्हें सोच कर ही मन मे दबा देना ही बेहतर लगता था पर यहां वो बातें सहजता से आदान प्रदान हो रही थीं।

अनजाने रास्तों पर बेधड़क चढ़ना भी सुखद था, मित्रों के साथ ऐसा काम कर के पूर्णता का एहसास भी होता था साथ ही साथ कोई एक खलिश भी रह जाती थी कि रोजाना की दिनचर्या में हम इस कदर क्यों नही रह पाते। उस ट्रेक पे चढ़ना भावनात्मक रूप से असीम आनंददायक रहा। ऊपर चढ़ने के साथ ही प्रकृति की खूबसूरती अपने चरम पे हमारा स्वागत कर रही थी, प्रकाशमान पर्वत श्रंखलाएं बर्फ की चादर ओढ़े सूर्य के प्रकाश का सुनहरा कलेवर चढ़ाये हमारे सामने थीं, त्रिशूल, चौखम्भा और केदारताल जैसे पर्वत दूर से ही हमारे स्वागत में थे।

गजब की अनुभूति थी वो भी जहां उपर की ओर पर्वत थे वहीं सामने पवित्र देवरिया ताल ।

देवरिया ताल को महाभारत काल की झील बताया जाता है, इससे संबंधित कई कथाएं प्रचलित हैं, जिनमे बताया जाता है कि धर्मराज के कहने पर भीम ने ताल का निर्माण किया था, ताल के किनारे शेषनाग का मंदिर उस कहानी को बलदेता है जिसमे कहा गया है कि भगवान विष्णु स्वयं इस ताल में निवास करते हैं।

बहरहाल, ताल पर दर्शन आचमन के उपरांत हम सभी वहां से ऊपर एक टीले पर चढ़ गए जहां एक मचान बनी हुई थी जिसपे चढ़ कर हम पर्वत श्रंखला की खूबसूरती निहारते रहे, वहां शून्य में होने जैसी शांति थी जिसे शब्दों में समझाना कठिन है, उस वक़्त केवल कानों को ही नही आत्मा को भी शांति का अनुभव हो रहा था।

कुछ देर बाद हम वहां से नीचे उतरकर जलपान आदि किया, चाय की तलब थी। उतने ऊपर जहां पापुलेशन डेंसिटी 5-10 की होगी चाय मिलती कैसे।

देवरिया ताल के वन विभाग के संरक्षक थे, बात चली तोह दूर तक गयी, विमल और भास्कर कि वाकपटूता ने उसे चाय पे चर्चा का माहौल बना दिया, चाय भी मिली, पहाड़ों के ज्ञान भी, कहानियां सुनने को मिलीं और आगे के रास्ते की सलाह भी।

वहां से ट्रैकिंग कर नीचे उतरे, थोड़ी देर बैठे, वहीं पास में संतरे का पेड़ था, उसपे लगे संतरे देख कर इच्छा हुई कि सेवन किया जाए, पास की एक दुकान पे एक बाबा ने बुलाया और बैठा कर जूस बना कर पिलाया, बाबा वहां के सर्टिफाइड गाइड थे जो उस सर्किल के ट्रैकिंग स्कूलों में प्रसिछन भी दिया करते थे।

वहां से आगे चोपता के लिए हमें एक गाइड कम ड्राइवर मिल गए।

उन्होंने ही आगे के बारे में हमें विस्तार में जानकारियां दीं, आस पास में जितने भी पहाड़ मौजूद थे उनसभी के नाम बताए और उनका माहात्म्य भी बताया।

पर सबसे अच्छी बात ये रही कि उन्होंने वहां पे मौजूद सारि जड़ी बूटियों और वहां होने वाली भिन्न भिन्न औषधियों और जल स्त्रोतों के बारे में भी बताया जिन्हें कई शोधकार्यों में प्रयोग किया जा रहा है, जिनसे कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

चोपता पहुचने से पहले हमें जब घाटी पर पहली बार बर्फ मिली दुग्गल बिट्टा जगह थी शायद हम सभी उत्साहित हो वहीं उत्तर गए, मानो बचपन लौट आया था बर्फ में अठखेलियां शुरू हो गयीं , एक दूसरे पर बर्फके गोले फेंकने का सिलसिला शुरू हो गया। पर इस मस्ती को रोक कर आगे बढ़ना ही सुलभ था क्योंकि अभी भी हमें चोपता में रुकने खाने का प्रबंध देखना था।

चोपता एक छोटा सा मार्केट था जहां से चंद्रशिला तुंगनाथ महादेव का ट्रैक शुरू होता था, जहां गाड़ी ने हमें छोड़ा वहां से रोड आगे औली और बाकी तीर्थ स्थानों तक जाती थी।

चोपता पहाड़ों के बीच एक बड़ी मजेदार जगह थी, वहां कुछ ही दुकाने थीं पर जरूरी सामान सारा मिल जाता था।

दिनेश जी के ढ़ाबे पर हम थोड़ी देर रुके फिर उनसे ही बात व्यवहार कर के रहने का प्रबंध भी कर लिया। कुछ एक जगहों पर और भी देखा तोह गया पर सब हमारे बजट के बाहर जा रहे थे। जगह थोड़ी डाबाडोल सी थी पर हमें केवल रात ही गुजारनी थी 3बजे भोर में ही ऊपर की ओर कूच करने का विचार बना था। हमें चोपता पहुचे थोड़ी ही देर हुए थे पर ठंड ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। जैसे ही हम लॉज की ओर गए हमने देखा, सामने एक व्यक्ति पानी की टंकी से बर्फ निकाल के फेंक रहा था और उसके साथ वाली छत पर से एक बंदा कठोर हो चुकी बर्फ को कुदाल से तोड़ कर फेंक रहा था, आबोहवा की सर्दी ने अभी तक परेशान नही किया था पर बर्फ जमने का ये आलम सिहरन जगाने के लिए काफी था।

गर्म पानी की व्यवस्था हम देख आये थे पहले ही, सुबह के लिए गमबूट और लाठी का जुगाड़ भी मिल गया था बस बड़ी थी सुबह होने की।

रात का खाना हमने दिनेश जी के ढाबे पे ही खाया और जरूरत की बाकी चीजें समेटे हम कमरे में बैठे, थकावट तोह थी पर बातों का दौर थम न रहा था, बात चली फिर और बातें निकलीं, गंभीर मजेदार हँसी ठिठोली वाली और बातें करते करते ही हम सो गए। पर हम सबमे एक बात आम थी कि शायद ही किसी ने इतनी ठंडी रात कभी देखी होगी उस रोज पर माईनस में गया था, हम सब कंबलों के ढेर के नीचे सोये थे वो भी ठसाठस कपड़े पहनने के बाद।

भोर हुई, एक दो को छोड़ कर शायद ही किसी को नींद आयी थी, जब मैं जगा तोह सब जाग चुके थे, दरवाजा खोल बाहर देखा तोह एक बर्फीली हवा के झोंके ने रोम रोम के तार झंकझोर दिए, मानो हवा भी माहौल की नैसर्गिकता से परिचय कर रही हो, सावधान कर रही हो कि ठंड बहोत है बाबू जी।

तुरत फुरत में अंदर जाकर कंबलों के ढेर में जा घुसा जिसपर सभी की हँसी निकल गयी, गलती से में बहादुर के ऊपर जा लोटा था जो कराह कर उठा और न जाने किस किस भाषा मे गालियां दी ।

ठंड का जो हाल था सो था, दोस्ती यारी की बात सब खत्म हो गयी अचानक से माहौल उन्नीस सौ सैंतालीस का हो गया जब भारत पाकिस्तान में बंटवारा हुआ था, दरअसल गरम पानी खत्म हो गया था और जो पानी बचा था उस पर एक लेयर बर्फ जैम चुकी थी। सबकी बभनौटी निकल गयी जो नाहा धोकर जाने वाले थे, कुछ ने कौवा स्नान किया कुछ ने चिड़िया, हम और विमल सिर पे पानी गिरा कर दिमाग जमने का अनुभव कर चुके थे सो ज़्यादा हिम्मत रही नहीं रही सही कसर उस वक़्त निकल गयी जब नित्य क्रिया दोबारा जानी पड़ी।

ठन्डे देशों में टिश्यू पेपर का चलन अचानक से प्रासंगिक लगने लगा,अब तक मन में कुछ उहापोह थी पर अनुभव ने कॉन्सेप्ट समझा दिया।

बहरहाल हम महादेव का नाम लिए ऊपर की ओर चल दिये, शुरू शुरू में चढ़ाई आसान थी, कहीं कहीं पर बर्फ पिघल कर ट्रेक पर आ गयी थी और वापस जम कर सख्त भी हो गयी थी उस हिस्से पे जब भी पैर पड़ता फिसलन जोरदार होती थी।

करीब आधा किलोमीटर चढ़ने के बाद थकावट सी महसूस होने लगी थी, एलिवेशन करीब 30डिग्री के आस पास का रहा होगा और हाड़ कपाने वाली ठंड में ऊपर चढ़ना और कठिन होता जा रहा था, सभी साथ थे तोह बहोत ज्यादा तकलीफ का अनुभव नहीं हो रहा था। सुबह होने को थी भगवान सूर्य पूरब दिशा से अपने प्रभायमान सारथी लिए सुनहरे पहाड़ों पर विराजमान होने को चल दिये, अबतक चाँद की नीलिमा से भरे पहाड़ों की चोटियों पर सुनहरा कलेवर चढ़ने लगा, सूर्य की पहली किरण पड़ने तक हम इतनी दूरी तय कर चुके थे कि भगवान तुंगनाथ का मंदिर शिखर दिखने लगा था, पर वहां तक पहुचने के लिए बचा थिंदा से रास्ता भी अब कष्टकारी प्रतीत हो रहा था। रास्ते पे बर्फ कठोर पत्थर की भांति जम गई थी और हृदयगति साथ मे चलने वालों को भी सुनाई दे इतनी ज्यादा बढ़ गयी थी। हर बीस कदम पर रुकना आवश्यकता कम मजबूरी ज्यादा हो गए थे, इसी बीच बहादुर की सारी बहादुरी भी हवा हो गयी पर नामकरण के मुताबिक बहादुर ने काफी बहादुरी दिखायी थी, जहां वो आधे रास्ते ही हिम्मत हर चुका था वहीं वो सबका साथ पाकर तुंगनाथ मंदिर तक जा पहुंचा।


बाबा तुंगनाथ जिन्हें पंच केदार की भुजाओं का अंग कहा जाता है उनका मंदिर बर्फ से घिरा हुआ था। मंदिर तक पहुचने के कुछ दूर पहले से ही दुकानों की कतारें दिख रही थीं पर उनमें कोई था नही सभी लोग सर्दी के मौसम में पहाड़ से नीचे चले जाते हैं । पूरे मार्केट में सन्नाटा पसरा हुआ था, बर्फ ही बर्फ चारो ओर थी, बाएं हाथ की ओर पहाड़ों का सैलाब उठ कर ठहर सा गया हो मालूम होता था और दायीं ओर भगवान तुंगनाथ का मंदिर।

मंदिर परिसर में एक बड़ा अहाता था जिसके चारों ओर बर्फ भर गई थी, भगवान के मंदिर के सामने बैठ कर असीम शक्ति और आनंद का अनुभव हो रहा था, उस वक़्त ऐसी अनुभूति हो रही थी जैसे अंतरात्मा जागृत हो गयी हो और कह रही हो कि हे मनुष्य क्या कुछ नही कर सकता है तू।

मन में दूसरा कोई खयाल नही बाकी था, मन का खालीपन जीवन मे दूसरी दफा अनुभव हो रहा था, श्रद्धा अपने चरम पे थी,वहीं जूते उतारे और बाबा मंदिर के बंद दरवाजे से अंदर झांक कर बाबा के दर्शन की लालसा को तृप्त करने की नाकाम कोशिश करने के बाद वहीं सर्वसमर्पित भाव से माथा टेक भगवान का आशीर्वाद लिया।

भास्कर गुरु ने वहीं पर कपूर जला कर मंदिर की सेवादारी का पुण्य काज किया तत्पश्चात हर हर महादेव का बनारसी अंदाज में जय घोष कर हमारे भीतर की बची खुची ऊर्जा का दोबारा से संचार कर दिया।

थोड़ी देर हम मंदिर परिसर पर ही टहलते रहे फिर खयाल आया कि अभी चंद्रशिला बाकी है, दिल्ली दूर थी।

मंदिर के आस पास से पहाड़ का शिखर नही दिख रहा था कुछ ऊपर चढ़ने पर एक चोटी नजर आ रही थी जो नजदीक ही थी। बहादुर हिम्मत हार चुके था सो उसने वापिस लौटना सही समझा, उसकी हालत देख कर उसे ज्यादा प्रोत्साहित करना भी हितकर नही था, बहादुर वहीं से लौट गया। और हम बाकी सब आगे की ओर कूच किये। थोड़ी आगे जाकर रास्ता बंद था, एक ओर एकदम गहरी खाई थी दूसरी ओर दूर दूर तक केवल बर्फ, थोड़ी देर पहले जो चोटी नजदीक लग रही थी वो अब चाँद की तरह दूर नजर आ रही थी जो देख तोह सभी रहे थे पर पहोचने के आसार नजर नही आ रहे थे। रास्ता कहीं से समझना मुश्किल था। सबने विचार किया कि इतना ही तोह है क्या करेंगे जाकर,उस वक़्त दिमाग मे एवरेस्ट चढ़ने वालों के बारे में विचार आ रहे थे कि किस प्रकार इससे हजारगुना कठिन पहाड़ों पर वे जाने की हिम्मत जुटा पाते होंगे, बस किसी तरह मन को मना कर खाई वाले रास्ते अकेले ही आगे बढ़ गया।

थोड़ा आगे जाने पर मन में व्यथा भी थी, जिसका समाधान हमारे परमप्रिय उमेश भइया की समझाई गयी रामचरित मानस की चौपाई में मिली।
प्रबिसि नगर कीजै सब काजा,
हृदय राख कोशलपुरराजा। 
बस हृदय में बाबा भोलेनाथ को जपते हुए निकल पड़ा उस वक़्त बस मन में जुनून था कि बस चढ़ना है और किसी भी तरह पहाड़ की चोटी पर पहुचना है।
 थोड़ी दूर जाने पर ही पीछे से थोड़ी सुगबुगाहट लगी रुक कर देखा तोह बाकी दोस्त भी आ रहे थे। जाने क्या मनो दशा थी के मन मे आया की कुत्ते साले कहीं चैन से रहने न देंगे, नरको में ठेली ठेला करने पहुच जाएंगे साले। मन उन्हें देर से आते देख कर ही इतना आनंदित हो रहा था कि सब उनपे न्योछावर कर देने का कर रहा था पर उस वक़्त था भी क्या मेरे पास देने को फिर ऊपर की ओर देखा तोह सामने था  चंद्र शीला पर चढ़ कर फर्स्ट आने का मौका, बस वहीं मन में ठान लिया, सारे दोस्तों में चोटी पर सबसे आखरी में कदम हमने रखा।
किंवदंतियों के अनुसार यह वह जगह है जहाँ भगवान राम ने राक्षसों के राजा रावण को जीतने के बाद तप किया था। यह भी माना जाता है कि चाँद के देवता, चन्द्रमा ने यहाँ अपना प्रायश्चित संपादित किया था

चोटी के ऊपर चारो ओर पहाड़ ही पहाड़ थे, और उनमें से एक के शिखर पर हम खड़े थे, गजब की अनुभूति हो रही थी उस वक़्त, एक तस्वीर देखकर वहां जाने की इच्छा से शुरुआत हुई थी और आज हम वहां खड़े थे। कठिनाइयां, ठण्ड और शारीरिक-मानसिक सीमाओं को लांघ कर यहां तक पहुचना खैर अब कठिन तोह नही लग रहा था पर कहीं न कहीं हमें इस बात का एहसास था कि ये सरल भी नहीं था।
उस ऊंचाई पर केवल हम ही थे, मोह, त्याग, प्रेम, वियोग सब एक पल में सिमट आया था, उस वक़्त जिस पूर्णता का एहसास हो रहा था उसे शायद केवल महसूस ही किया जा सकता है शब्दिता के परे की बात है।
भरे हुए दिल के साथ विमल भाई गले मिले, फिर हम सब साथ मे गले मिले और उस लम्हे को संजोने की हर संभव कोशिश की । पर आज भी आंखें बंद करने पर जब वो दृश्य सामने आते हैं,जो भाव उमड़ते हैं उन्हें कैद करने की सैयद ही कोई मशीन दुनिया मे होगी।

उम्मीद करता हूँ, यात्रा वृत्त आपको पसंद आया होगा, सुझावों और सलाह की बहोत कद्र करता हूँ, नकारात्मक बातें अवॉयड करता हूँ, अपने विचार अवश्य साझा करें।


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